Monday 18 February 2013

कुछ नेता भी हैं बलात्कार के

                           कुछ नेता भी हैं बलात्कार के 



मनोज कुमार पारस उत्तर प्रदेश सरकार में स्टैंप ड्यूटी के मंत्री हैं. नगीना विधानसभा क्षेत्र से चुने गए विधायक मनोज कुमार पारस पर एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार के आरोप हैं. 


एंड्रयू नॉर्थ
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
शुक्रवार, 15 फ़रवरी, 2013 को 19:34   दिल्ली बलात्कार Read .............. All India Shri Swami Samarth Seva- ... ..........................................  




पिछले साल (2012) दिसंबर में दिल्ली में एक बस में एक पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और फिर उनकी मौत के बाद भारत सरकार ने कहा था कि वे महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए यौन अपराध के मामले में त्वरित कार्रवाई करते हुए तुरंत इंसाफ़ दिलाने की कोशिश करेगी.

दिल्ली बलात्कार मामले के पांच अभियुक्त गिरफ़्तार हो चुके हैं और फ़ास्ट ट्रैक अदालतों में उस केस की सुनवाई भी हो रही है.

लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के इन दावों का उत्तर प्रदेश पर कोई ख़ास असर नही है.

मंत्री मनोज कुमार पारस पर छह साल पहले बलात्कार के आरोप लगे थे लेकिन आज तक उनके ख़िलाफ़ न तो अदालत ने कोई कार्रवाई की है और न ही इस मामले को ख़ारिज किया है.

लेकिन पारस का मामला अकेला नहीं है जिसमें किसी राजनेता या मंत्री पर इस तरह के आरोप लगे हैं.

कई राजनेताओं पर बलात्कार या महिलाओं के ख़िलाफ़ यौन शोषण के आरोप हैं.



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क तिहाई नेताओं पर आपराधिक मामले

जस्टिस वर्मा कमेटी
वर्मा कमेटी ने कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे.
राजनेताओं पर नज़र रखने वाली दिल्ली स्थित ग़ैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स (एडीआर) के अनुसार भारत में 4835 निर्वाचित नेताओं में से लगभग एक तिहाई ने अपने नामांकन पर्चे में अपने ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज होने की बात स्वीकार की है.
उनमें उत्तर प्रदेश तो शायद सबसे आगे है क्योंकि यहां के मौजूदा 58 मंत्रियों में से 29 पर कोई न कोई आपराधिक मामला दर्ज है.
उत्तर प्रदेश में ही मनोज कुमार पारस के साथी, परिवहन मंत्री महबूब अली पर अपने राजनीतिक विरोधी की हत्या के प्रयास का मामला दर्ज है.
लेकिन महबूब अली अपने ऊपर लगे आरोपों को ख़ारिज करते हुए कहते हैं, ''हो सकता है कि अदालत या पुलिस थाने में मेरे ख़िलाफ़ कोई शिकायत दर्ज हो लेकिन अगर जाँच होती है, तो आरोप ग़लत साबित होंगे.''

मनोज कुमार पारस भी अपने ऊपर लगे बलात्कार के आरोप को ख़ारिज करते हुए कहते हैं कि ये उनके राजनीतिक विरोधियों की साज़िश है.
भारतीय समाज में हालाकि एक महिला के लिए बलात्कार का मामला दर्ज करवाना बहुत ही असाधारण बात है क्योंकि उलटे पीड़ित लड़की या महिला को ही पारिवारिक और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है.

लेकिन भारतीय क़ानून के अनुसार आरोप चाहे कितने भी गंभीर हों जब तक वे साबित नहीं हो जाते राजनेता अपनी कुर्सी पर बने रह सकते हैं.

एडीआर के राष्ट्रीय संयोजक अनिल बैरवाल कहते हैं कि अक्सर राजनेता अपने पद का इस्तेमाल करके मामले को वर्षो नहीं बल्कि दशकों तक टालने में सफल हो जाते हैं.

एडीआर के मुताबिक़ आपराधिक मामलों के अभियुक्त नेताओं की संख्या हर साल बढ़ती जा रही है.

एडीआर के अनुसार 1448 सांसदों और विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें 641 पर तो हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे गंभीर अपराध के आरोप हैं.




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लोकतंत्र को ख़तरा 


कांग्रेस पार्टी के मौजूदा 206 सांसदों में से 44 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं जबकि पूरे देश में सभी पार्टियों को मिलाकर छह विधायकों पर बलात्कार के मामले दर्ज हैं.

दिल्ली बलात्कार के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी के सदस्य गोपाल सुब्रमण्यम कहते हैं कि 'भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है.'

वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सिफ़ारिश की थी कि गंभीर आरोप झेल रहे सभी राजनेताओं को अपने पद से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए. लेकिन उनकी सिफ़ारिश को सरकार ने मानने से इनकार कर दिया है.

एडीआर के संस्थापक सदस्यों में से एक प्रोफ़ेसर जगदीप चोकर कहते हैं, ''राजनीतिक पार्टियां केवल इस बात में विश्वास रखती हैं कि चुनाव जीतना ही असल मुद्दा है. चुनाव कैसे जीते जाएं इससे कोई लेना देना नहीं.''

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जिसने किया हज़ारों बलात्कार पीड़ितों का इलाज

                  जिसने किया हज़ारों बलात्कार पीड़ितों का इलाज 



लॉरा न्‍यूमेन अन्‍नापोलिस, मैरीलैंड में रहती हैं. इनके साथ 18 साल की उम्र में बलात्‍कार हुआ. अपराधी जेल में है. लॉरा तथा अन्‍य महिलाओं पर यौन हमलों के आरोप में उम्रकैद की सजा काट रहा है.
पढ़िए उनकी कहानी उनकी ही ज़ुबानी:
"मैं तब कम्‍युनिटी कॉलेज में थी. खर्चा चलाने के लिए वेटर का काम करती थी. उस दिन शाम को जब घर आयी, मेरा रूममेट अपनी प्रेमिका से मिलने गया हुआ था. वह मेरे ही रेस्‍तरां में काम करता था. मैं घर पर अकेली थी.


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तब रात के करीब बारह या एक बज रहे होंगे. मैं सो रही थी. तभी अपार्टमेंट में हुए किसी शोरगुल से मेरी नींद खुली. मुझे लगा कि मेरा रूममेट लौट आया है. जैसे ही मैं उठने लगी, मेरे चेहरे को किसी ने तकिये से दबा दिया और सिर पर बंदूक तान दी. ऐसी हालत में मेरा बलात्‍कार किया गया.
वे बहुत ही बुरे दिन थे. मुझे साफ़ दिख रहा था कि मेरे घर वालों को मेरे साथ हुई बलात्‍कार की घटना पर विश्‍वास नहीं था और यह भी स्‍पष्‍ट हो गया था कि पुलिस भी मेरा यकीन नहीं कर रही है. उन्‍हें लग रहा था कि मेरा बलात्‍कार नहीं हुआ और मैं अपने गर्भ को छुपाने के लिए कोई नाटक कर रही हूं. मेरे केस की छानबीन कभी नहीं हुई.

इन सबका परिणाम यह हुआ कि मैं भयंकर तनाव में रहने लगी. क्‍योंकि एक तो मैं अकेली ही इस मुसीबत का सामना कर रही थी, और दूसरे, ऐसी परिस्थिति के लिए मानसिक रूप से मैं कतई तैयार नहीं थी.

मुझे घर वापस जाने के लिए मजबूर किया जाने लगा. आप सोचिए कि वे मेरे साथ हुए बलात्‍कार को सच नहीं मान रहे थे. वे कुछ भी और मान सकते थे मगर ये नहीं कि मेरा बलात्‍कार हुआ होगा.

इस तरह के माहौल में रहने को मजबूर होना बेहद तनाव भरा साबित हो रहा था.

जब तक मैं 21 साल की नहीं हो गई, तब तक मैं घर से बाहर निकलने में असमर्थ रही. फिर कई कई सालों का लंबा संघर्ष. कभी वो भी वक्‍त था जब खाना भी मुहाल था. कभी किसी से नजदीकी संबंध नहीं बनाए, सबसे दूरियां बनाए रखीं.

लंबे समय तक लगातार डर में जीती रही. मैं कहना चाहूंगी कि कुछ भी नहीं बदला है, वही परिस्थितियां आज भी हैं. सभी रेप सर्वाइवर जिनसे मैं मिली हूं, लगातार भय में जी रहे हैं. यह भय ताउम्र उनका पीछा नहीं छोड़ता.



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मैं इसे मौत से बदतर जिंदगी कहूंगी. इससे अच्‍छा तो आप मुझे मार ही डालो. इन सबसे उबर पाना बहुत मुश्किल है. आप भले ही इस हालात को पूरी तरह बदल नहीं सकते, मगर मुझे लगता है कि इस अपराध की धारणा को बदलने का सबसे जरूरी उपाय है, बलात्‍कार की शिकार औरतें इस अपराध के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें.


कुछ मौकों पर आपको तय करना होता है. या तो आप आगे बढें या वहीं ठहर जाएं. मेरे लिए तब एक-एक पल एक-एक दिन के बराबर था. अब मैं 23 साल की हो चुकी थी.

मैंने अपना ध्‍यान पूरी तरह कैरियर बनाने और खुद के लिए जिंदगी संवारने में लगा दिया था. मैंने खूब मेहनत की और लंबे समय तक काम किया. अपनी सारी ऊर्जा को निजी संबंध बनाने में नहीं, बल्कि अपने कैरियर में लगाया. एमबीए किया.

कड़ी मेहनत की बदौलत एक के बाद एक सफल नौकरी पाती चली गई. और 30 साल की होते-होते खुद को आर्थिक रूप से बिल्‍कुल सुरक्षित कर लिया.

तो बलात्‍कार के 19 साल गुजर जाने के बाद भी मैं उस केस को फिर से शुरू करने के प्रति दृढ़संकल्‍प थी. सालों साल मैंने जो कोशिश की, मैं उसके बारे में दृढ़ नहीं थी, मगर मेरी दृढ़ता करियर शुरू करने और बिजनेस में सफल होने के रूप में सामने आई.

पुलिस मेरे केस को दोबारा शुरू करे, इस मकसद से मैंने मुहिम चलाई. मैने सबकी मदद ली और अंतत: मुझे उस जासूस का नाम मिला जो पुराने और ठंडे पड़ चुके मामलों को उठाता था. उसने मेरा केस अपने हाथों में लिया और तीन दिनों में सुलझा दिया.

वारदात के समय के सारे सबूत लगभग नष्‍ट हो चुके थे. लेकिन उंगलियों के निशान, जो कि लंबे समय तक रहते हैं, उसके चलते अपराधी की शिनाख्‍त हो सकी. वहां मौजूद उंगलियों के निशान उस व्‍यक्ति के थे, जो अक्‍सर जेल आता-जाता रहता था.




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अपराधी को जब सजा सुनाई गई, ऐसा लगा मानो मैं किसी कैद से आज़ाद हो गई.

आज़ादी सबसे अच्‍छा शब्‍द है मेरे लिए क्‍योंकि अब कोई घेरा नहीं था. जब न्‍याय हुआ, तो कोई बोझ हटा. यह सब मेरे लिए बहुत उत्साहित करने वाला था. अब बस मैं एक सप्‍ताह के लिए सो जाना चाहती थी. यह बेहद महत्‍वपूर्ण था मेरे लिए, जीवन बदल देने वाला.

जिस दिन अभियोग पत्र दाखिल किया गया, उसी दिन ऐसा हुआ कि मैं अपने भावी पति से मिली. यह मात्र संयोग था. अत: मैंने 39 साल की उम्र में शादी की. अब मेरे दो बच्‍चे हैं, एक बेटा और एक बेटी."


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शर्म की बात है कि समाज मानवता भूल चुका है: किरण बेदी


दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई लड़की के दोस्त ने टीवी चैनल ज़ी न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में इस घटना में पुलिस और समाज दोनों के रोल पर सवाल उठाया है.
लड़के का कहना है कि जब उसे और पीड़ित लड़की को नग्न अवस्था में बस से फेंक दिया गया था तो उन्होंने राह पर आते-जाते लोगों को रोकने की कोशिश की थी लेकिन 20-25 मिनट तक कोई नहीं रुका. लड़के का ये भी कहना था कि करीब 45 मिनट बाद पुलिस की पीसीआर वैन्स घटनास्थल पर पहुंची लेकिन आपस में अधिकार क्षेत्र तय करने में उन्हें समय लगा.
इस मामले पर विपक्षी पार्टियों और जानी मानी हस्तियों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है.
केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा है कि जब तक वे पूरे मामले में जानकारी हासिल नहीं कर लेते तब तक वे प्रतिक्रिया नहीं देंगे.



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@thekiranbedi पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी ने ट्विटर पर अपनी प्रतिक्रिया में लिखा है- “लड़के के दोस्त का इंटरव्यू टूटे हुए सामाजिक ढाँचे को दर्शाता है फिर वो समुदाय हो, पुलिस हो या कोई और. बहुत शर्म की बात है. ज़ी न्यूज़ के खिलाफ मामला दर्ज करने में पुलिस ने कानूनी तेज़ी दिखाई है. काश वे अपरधों को वैसे ही दर्ज करे जैसे वो रिपोर्ट किए जाते हैं.समाज के तौर पर हम मानवता भूल चुके हैं.”
‏@NMenonRaoअमरीका में भारत की राजदूत निरुपमा राव ने भी ट्विटर पर अपने विचार रखे हैं. उन्होंने इंटरव्यू का वीडियो लिंक पोस्ट करते हुए लिखा है ये पूरे समाज को कटघरे में खड़ा करता है.
‏@suchetadalalउस बहादुर लड़की और लड़के को जो सहना पड़ा, उसके बाद मैं सो नहीं पाई. पुलिस में सुधार ज़रूरी है.
‏@Ayeshatakiaअभिनेत्री आयशा टाकिया- दामिनी का दोस्त सच्चा हीरो है. उन हालातों में भी अपनी दोस्त की इज्ज़त के लिए वो लड़ा...
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने पत्रकारों से बातचीत में अपनी बात कुछ यूँ रखी- अगर मानवता के आधार पर भी देखो तो कम से कम उन्हें अस्पताल ले जाना चाहिए था, उनके शरीर को ढकना चाहिए था. तीन पीसीआर वाले वहाँ थे. उनके खिलाफ एफआईआर दायर करना होगा.




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समाज..

लोकं अगदी धूमधडाक्यात लग्नं करतात
शेकडो लोकांना बोलावतात
कारण “समाज.. समाज ” म्हणतात
त्यानंतर मात्र सतत दारं बंद करुन राहतात
एकटे एकटे आयुष्य जगतात
त्याचही कारण ” समाज.. समाज ” म्हणतात …

गैंग रेप के बहाने हॉट शूट करवा डाला !!

                 गैंग रेप के बहाने हॉट शूट करवा डाला 

 

एक सप्ताह पूर्व भारत की राजधानी दिल्ली, जिसे क्राइम कैपिटल कहा जाना भी गलत नहीं होगा, में हुए गैंग रेप ने सुरक्षातंत्र और सरकार के दावों की पोल खोल दी. इस घटना के बाद पूरा देश सरकार के विरोध में एक साथ आ खड़ा हुआ. ऐसे में हमारे बॉलिवुड सिलेब्रिटीज कहां पीछे रहने वाले थे. उन्हें तो जैसे एक मौका मिल गया पब्लिसिटी पाने का. विरोध का विरोध और पब्लिसिटी की पब्लिसिटी, यह तो जैसे सोने पर सुहागा हो गया. 

 

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अब देखिए जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘द सिटी दैट नेवर स्लीप्स में अपने जलवे बिखरेने को तैयार सुजाना ने गैंगरेप के गुनहगारों को सजा की मांग करते हुए एक हॉट फोटोशूट ही करवा डाला.

वैसे तो देश की सभी महिलाएं यह चाहती हैं कि ऐसे वहशी दरिंदों को सजा दी जाए लेकिन हमारे सेलेब्स का सजा मांगने का यह तरीका एक दम हट के था. नवोदित अभिनेत्री सुजाना का कहना है कि दिल्ली की यह घटना बेहद शर्मनाक है, इसके आरोपियों को या तो मौत की सजा मिलनी चाहिए या फिर उन्हें नपुंसक बना दिया जाना चाहिए. 




सुजाना अकेली अभिनेत्री नहीं हैं जो इन गुनहगारों के लिए मौत की सजा की मांग कर रही हैं. बॉलिवुड के दबंग सलमान खान का भी यही कहना है कि मौत की सजा के अलावा ऐसे अपराधों के लिए और कोई सजा नहीं हो सकती.

वहीं दूसरी ओर अभिनेत्री करीना कपूर का भी यही कहना है कि ऐसी गंदी हरकतों के बाद भी प्रशासन की नींद नहीं टूटती, वह इन घटनाओं को रोकने के लिए कभी भी चिंतित नजर नहीं आता.

लड़की को किस करते हुए पकड़ी गईं रिया सेन
कुछ समय पूर्व अपने ब्वॉयफ्रेंड और अभिनेता अश्मित पटेल को किस करते हुए अभिनेत्री रिया सेन का एमएमएस सार्वजनिक हो गया था. इस एमएमएस को इंटरनेट और मीडिया में खूब उछाला गया जिसके बाद दोनों प्रेमियों की राहें एक-दूसरे से अलग हो गईं. अब दोनों के बीच क्या है और क्या नहीं यह तो हम नहीं जानते लेकिन रेव पार्टी में शामिल होने और ड्रग्स लेने जैसे आरोपों का सामना करने के बाद हाल ही में रिया सेन को एक पार्टी में अपनी महिला मित्र को किस करते हुए जरूर देखा गया है. 







अभिनय से ज्यादा अपनी लाइफ स्टाइल को लेकर ज्यादा चर्चा में रहने वाली अभिनेत्री रिया सेन को मुंबई में एक प्राइवेट पार्टी के दौरान अपनी ‘सहेली’ का चुंबन लेते हुए देखा गया.

हैरानी की बात तो यह है कि वहां खड़े लोग रिया को ना सिर्फ देख रहे थे बल्कि चुंबन करते हुए उनकी फोटो भी खींच रहे थे लेकिन उन्हें इस बात से कोई फर्क पड़ता दिखाई नहीं दिया.

यही वजह है कि लोग ऐसा मान रहे हैं कि यह उनका एक पब्लिसिटी स्टंट है, क्योंकि बहुत दिनों से वह मीडिया से दूर हैं. शायद फिर से बॉलिवुड में आने के लिए रिया ऐसा शॉर्टकट अपना रही हैं. 

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ऐसे बच सकती थी दामिनी

                            ऐसे बच सकती थी दामिनी  



यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है कि आप किसी सभा को संबोधित करते हुए क्या कहते हैं और वो किस तरह से समाज और श्रोताओं को प्रभावित करता है. बोलने में बहुत ही ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत होती है क्योंकि वह शब्द कहीं ऐसे ना साबित हो जाएं जो आपको ही संकट में डाल दें. अपनी बात को इस प्रकार से कहना समाज को कितने अशोभनीय संकेत प्रदान करता है इसका फैसला तब ही होता है जब आप उस अवस्था के खुद भुक्तभोगी होते हैं. धर्मगुरु आसाराम बापू द्वारा दिया गया बयान ‘किस तरह से बेबुनियाद है’ इसका सामना उनको करना पड़ रहा है. दिल्ली सामूहिक बलात्कार के मामले के संबध में दिया गया उनका बयान कितना बेकार किस्म का है इसकी चर्चा आज पूरे देश में हो रही है. 


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मैं इसके खिलाफ हूं!!: आसाराम बापू का यह कहना कि इस मामले में पीड़िता भी उतनी ही जिम्मेदार है जितना कि यह अपराध करने वाले पर फिर भी उनका कहना है कि दोषियों को कड़ी सजा नहीं होनी चाहिए. आसाराम बापू को अगर जीवन और आज के समाज की सही मायने में समझ होती तो वो इस तरह का बयान कभी नहीं देते, उनके अनुसार यह दुष्कर्म करते समय अगर अपराधियों को पीड़िता “भाई” का दर्जा देती तो इस प्रकार की हैवानियत की शिकार नहीं बनी होती. आसाराम बापू के कहने के मुताबिक अगर वो दूसरे का हाथ पकड़ कर कहती कि मैं असहाय हूं और अन्य से कहती तुम तो मेरे धार्मिक भाई हो तो उसका इस प्रकार शोषण ना हुआ होता. उनका काम था कहना उन्होंने कह दिया पर जिस प्रकार की स्थिति आज हमारे समाज की है क्या वहां मात्र भाई कह देने से सारी उलझन सुलझ जाएगी? अगर इस प्रकार का मानसिक चिंतन और सोचने का नजरिया उन अपराधियों का होता तो क्या वो इस तरह का कुकृत्य करते? आसाराम बापू के अनुसार पीड़िता को उनसे रुक जाने की प्रार्थना करनी चाहिए थी शायद उनका मन बदल जाता. इस प्रकार का बयान देकर कहीं आसाराम बापू नारी को नीचा दिखाने और पुरुष के अधीन रहने की बात तो नहीं कह रहे हैं!!






rape 2पुरुष प्रधान समाज की ओर: जहां इस मुद्दे पर अब कार्यवाही भी शुरू हो गई है और फास्ट ट्रैक कोर्ट में इस मामले की सुनवाई चल रही है वहीं इस प्रकार का बयान देना कि अपराधियों को सजा नहीं होनी चाहिए इस समाज पर कुठाराघात करता है. आसाराम बापू के अनुसार पीड़िता को उनसे प्रार्थना करनी चाहिए थी और यह फरियाद लगानी चाहिए थी कि वो उसे छोड़ दें – उनका यह कथन एक पुरुष प्रधान समाज का उदाहरण सा लगता है जो फिर से भारतीय समाज को वहीं ले जा रहा है जहां इससे निकलने के लिए कई सारे आंदोलन किए गए थे. उनका यह भी कहना था कि छः नशे में धुत लोग जब उसके सामने थे तो उसको ईश्वर का नाम लेना चाहिए था. जो अपनी नैतिकता भूल चुका हो उसके सामने किसी का नाम लेना उतना ही बेकार है जितना कि भारत में अपराध के खिलाफ मुंह खोलना और सियासत पर अंगुली उठाना. दूसरी तरफ आसाराम बापू के इस बयान पर सारे राजनैतिक दलों के साथ-साथ महिला आयोग भी कड़े तेवर दिखा रहा है. भाजपा का कहना है कि आसाराम बापू धार्मिक गुरु हैं और उनको सारा देश देखता है अतः उन्हें इस तरह का बयान नहीं देना चाहिए था जो देश और समाज की भावनाओं पर चोट करे. वहीं आसाराम बापू के अनुवाई इस मुहिम में लग गए हैं कि किस प्रकार इस पूरे बयान को तोड़-मरोड़ कर परोसा जाए. भारत एक धार्मिक देश है वहां इस प्रकार का बयान और वो भी एक धार्मिक गुरु के द्वारा बहुत ही शर्मनाक है. 

पूरा देश शोक मना रहा है, पर शायद दीदी दुखी नहीं हैं

         पूरा देश शोक मना रहा है, पर शायद दीदी दुखी नहीं हैं

 

दिल्ली गैंग रेप से जहां पूरा देश शोक मना रहा था वहीं कुछ ऐसे भी मंजर देखने को मिले जो शायद थोड़े अप्रिय थे. कुछ लोगों ने तो यहां तक कह दिया कि वो इस नए साल पर कोई खुशी नहीं मनाएंगे क्योंकि दामिनी के साथ जो हुआ उससे वो बहुत दुखी हैं. इसी बीच पश्चिम बंगाल की सत्ता पक्ष की पार्टी टीएमसी अपनी वर्षगांठ मनाने में व्यस्त दिखी. जिस प्रकार का उत्साह और हर्ष टीएमसी के कार्यकर्ताओं में देखने को मिला उससे यही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतने बड़े कांड के बाद भी उनको कोई दुख नहीं है. वैसे भी सियासतदारों को कभी भी जनता के दुख में दुखी होते नहीं देखा गया है भले ही वो अपनी छवि बनाए रखने के लिए ऊपर से दुखी जरूर दिखें. 

 

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आगे बहुत कुछ हुआ: बात यहीं तक रुक जाती तो फिर भी ठीक था पर जश्न का मूड बना चुके कार्यकर्ता थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. आखिर कोई क्यों रुके, क्यों कोई मातम मनाए! आज के भारत में अगर इतनी संवेदना बची रहती तो क्या यहां इतने घिनौने अपराध होते जो पूर्ण रूप से अमानवीय हैं. छोटे-छोटे कपड़ों में थिरक रही लड़कियों के ऊपर नोट बरसाते कार्यकर्ताओं को शायद यह भी याद नहीं होगा कि देश किस परिस्थिति से गुजर रहा है. आज दिल्ली में बलात्कार हुआ है तो उसके विरोध में न जाने कितने लोग खड़े हो गए यही अगर देश के किसी और भाग में हुआ होता तो पता नहीं कितने लोग अपना काम-धाम छोड़ कर प्रतिवाद करने बाहर निकलते और शायद एक कारण यह भी हो सकता है जिससे अपराध पर लगाम नहीं लग पा रही है. 

 

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सबसे अजीब बात यह हुई: इस पूरे उत्सव में सबसे अजीब बात यह हुई कि यह सारा नाच-गाना पुलिस स्टेशन के सामने हो रहा था. भले ही पुलिस ने आधी रात के बाद इस पार्टी पर रोक लगा दी पर जितना भी देर ऐसा हुआ क्या वो समाजिक तौर पर सही था? जहां खुल कर इन सारी चीजों पर विरोध हो रहा हो वहीं दूसरी तरफ इस प्रकार के विलास का आयोजन करना कितना सही है? जिस तरह से लड़कियों के ऊपर नोटों की बारिश हो रही थी उसे देख कर समाज के दोनों रूपों का पता चल रहा था कि किस तरह पुरुष वर्ग नारियों का उपभोग करते हैं और दूसरा रूप ये था कि किन परिस्थितियों में महिलाएं इस प्रकार के साधन बन कर उनके सामने प्रस्तुत होती हैं. इन दोनों रूपों पर सोचना जरूरी है कि आखिर किन कारणों से इस प्रकार की परिस्थिति का निर्माण होता है जो सामाजिक स्तर पर नैतिकता के साथ निहायत ही गंदा मजाक है.





हम ऐसे नहीं हैं: इस पूरे घटना को चैनलों पर दिखाए जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस की तरफ से यह बयान आने लगे. इस घटना पर काफी सारे बवाल खड़े हो चुके हैं. महिला आयोग और विपक्ष ने इस घटना पर शर्मिन्दगी जाहिर की है. इस पर राष्ट्रीय माहिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने भी अपनी बात रखते हुए कहा कि इस तरह की घटना का होना बहुत ही शर्म की बात है और जब तक इस प्रकार की मानसिकता को नहीं बदला जाएगा देश में बलात्कार और नारी उत्पीड़न की घटनाओं में कमी नहीं आएगी. इस प्रकार की राजनीति समाज पर आघात करती है और यहां अगर ऐसी ही राजनीति होती रही तो युवाओं का भविष्य पूरी तरह अंधकार में चला जाएगा. 

  

लॉ स्टूडेंट्स ने दो महीने तक हैवानियत का खेल खेला


             लॉ स्टूडेंट्स ने दो महीने तक हैवानियत का खेल खेला 



“दामिनी” की मौत हो गई। कई दिन से जिस बात के होने का डर था –वो बात आखिरकार हो ही गई। दामिनी चली गई। सच कहूं तो मुझे उसके बचने की आशा थी भी नहीं। सफ़दरजंग अस्पताल में दाखिल किए जाने के बाद डॉक्टरों ने उसकी दशा का जो बयान किया था –उसे देखते हुए लग रहा था कि दामिनी को केवल कोई चमत्कार ही बचा सकता था। लेकिन जिस तरह से उस 23-वर्षीया लड़की ने दर्द और मौत का सामना किया उसे देखकर तो सिर सजदे में झुक जाता है।दामिनी को अपनी दरिन्दगी का शिकार बनाने वाले छह पशुओं में एक 17 साल का लड़का भी शामिल है। चूंकि उसकी उम्र अठारह वर्ष से कम है इसलिए उसका केस जुवेनाइल कोर्ट में सुना जाएगा। कानून ही ऐसा है कि उसे अधिक-से-अधिक तीन साल की जेल होगी जिसमें उसे सुधारने के प्रयत्न किए जाएंगे। पुलिस के मुताबिक इस लड़के ने दामिनी को सबसे अधिक बर्बरता से मारा था –और उसका बलात्कार भी किया था। इस लड़के ने दामिनी के साथ क्या-क्या किया इसका भयावह विवरण मीडिया की कुछ शुरुआती रिपोर्ट्स में आया था। उस विवरण को पढ़कर मानवता से विश्वास उठता हुआ-सा लगा था।








इतनी पशुता का प्रदर्शन करने के बावज़ूद यह लड़का केवल तीन वर्ष बाद हमारे बीच खुला घूम रहा होगा –और हम इसे पहचान भी नहीं पांएगे क्योंकि कानूनन उसकी तस्वीर और नाम को हमेशा छुपाकर रखा जाएगा। यह जानते हुए कि इस लड़के को तीन वर्ष के दौरान “सुधारने” की कोशिश की जाएगी –क्या आप अपनी बेटी, बहन, बीवी या दोस्त को इसके करीब सुरक्षित महसूस करेंगे?बाल कानून के मुताबिक अठारह वर्ष से कम उम्र के व्यक्ति को “बच्चा” माना जाता है और उसके द्वारा किए गए अपराधों को “निर्दोष कदम” माना जाता है। कोई बच्चा यदि चोरी करता पकड़ा जाए –तो यह समझ में भी आता है कि उसका अपराध शायद निर्दोष हो सकता है। चोरी, मार-पीट, गाली-गलौच और… कुछ वाकयों में… चलिए हत्या के बारे में भी हम मान सकते हैं कि बच्चे ऐसे अपराध बालपन की निर्दोषता के चलते कर बैठते हैं। उन्हें अच्छे-बुरे की समझ नहीं होती… लेकिन दामिनी का बलात्कार? और वो भी ऐसी घोर दरिन्दगी के साथ?… क्या बलात्कार जैसे केस में भी उस 17 साल के लड़के पर “बालपन” का ठप्पा लगाकर उसे आसानी से छोड़ दिया जाना चाहिए?
एक प्रश्न यह भी है कि क्या आज सत्रह वर्ष का व्यक्ति वाकई “बच्चा” रह जाता है? मेरा मानना है कि अब से तीस वर्ष पहले जो मानसिक उम्र बच्चे अठारह साल की आयु में पाते थे –उससे कहीं अधिक मानसिक उम्र अब वे 13-14 साल की आयु में ही पा लेते हैं। जो जानकारियाँ पहले दुर्लभ हुआ करती थीं –वे अब सबके मोबाइल फ़ोन पर उपलब्ध हैं। आज का टी.वी. और सिनेमा बच्चों को समय से पहले “बड़ा” करने में खूब योगदान दे रहा है। पाँच-छह साल के बच्चों से टी.वी. पर “चोली के पीछे” जैसे गीतों पर डांस करवाया जा रहा है –टी.वी. वालों की कमाई हो रही है और जनता मूर्खों की तरह इन बच्चों के “सेक्सी मूव्स” पर तालियाँ पीटती दिखाई देती है। इंटरनेट की बढ़ती पहुँच ने बच्चों को हर जानकारी उपलब्ध करा दी है। अश्लील फ़िल्में खुले-आम दस-रुपए-प्रति-सीडी के हिसाब से बाज़ार में मिल रही हैं।



अब से पचास साल पहले अधिकांश बच्चों में जो “भोलापन” होता था अब उसके अस्तित्व की गुंजाइश ही नहीं रह गई है… नैतिकता किस चिड़िया का नाम है –आजकल अधिकांश बच्चें इससे अनजान रहते हैं जबकि गालियों के विश्वकोश, जान से मारने के 101 तरीके, खून, ज़ोर-ज़बरदस्ती और विपरीत-लिंगी व्यक्ति के तमाम अंग-प्रत्यंगो की जानकारी से वे बहुत जल्द लैस हो जाते हैं। सूचना-क्रांति के इस दौर का बच्चा अब उतना बच्चा नहीं रहा है जितना हम उसे मानना चाहते हैं।ऐसे में यह ज़रूरी है कि किसी को कानूनन “बच्चा” मानने की उम्र को कम किया जाए। मैं जस्टिस हेगड़े की बात से सहमत हूँ कि आज के ज़माने में यह उम्र 15 वर्ष होनी चाहिए। इसके अलावा मेरे विचार में बच्चों की सज़ा भी उनके अपराध के लिहाज़ से तय होनी चाहिए। दामिनी से बलात्कार करने वाले सत्रह वर्षीय लड़के को तमाम उम्र जेल में रखना चाहिए। शुरुआती मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो दामिनी का बलात्कार इस लड़के का पहला अपराध नहीं है। यह लड़का इससे पहले भी अपराधों में लिप्त रहा है। हमारे बाल-सुधार-गृह बच्चों को सुधारने में कितना कामयाब हो पाते हैं इसके ऊपर एक गंभीर व ग़ैर-सरकारी शोध भी ज़रूरी है।
आज दामिनी के मृत-शरीर को भारत लाया जाएगा। फ़ेसबुक और ट्विटर पर आज केवल दामिनी की ही चर्चा है। कल जब उसका अंतिम संस्कार होगा –तब फ़ेसबुक और ट्विटर दामिनी को दी जाने वाली श्रद्धांजलियों से भरे होंगे…
और परसों?… 

परसों सभी लोग नए वर्ष के उल्लास में डूब जाएंगे… एक दूसरे को “हैप्पी न्यू ईयर” और “सेम टू यू” कहा जाएगा…
उसके अगले दिन तक दामिनी और उसका दर्द शायद एक बीती दास्तां बन चुका होगा।
विदा दामिनी, हो सके तो हमें क्षमा कर देना…
लेखक- ललित कुमार

 

ऐसे ही कहीं , एक काली रात में कोई रेप थोड़े ही हो जाता

ऐसे ही कहीं , एक काली रात में कोई रेप थोड़े ही हो जाता 


तुम मर गयीं, चलो अच्छा हुआ ! वरना लोगों ने तुम्हे ज़िंदा लाश तो पहले ही कहना शुरू कर दिया था। तुम्हारे माँ – बाप को ‘बेचारे माँ – बाप’ का तमगा पहले ही नसीब हो चुका था। नेताओं को गाली देना, सरकार को दोषी ठहराना तो बस एक तरीका था अपने अपराध बोध को छुपाने का। राज की बात बताऊँ , तुम्हारी मौत का ज़िम्मेदार मैं ही हूँ। हाँ, मैं ! ऐसे ही कहीं , एक काली रात में कोई रेप थोड़े ही हो जाता है ! ये मेरी कायरता का नतीज़ा है कि तुम्हारा रेप हुआ और फिर ऐसा हमला कि  दुनिया का कोई डाक्टर तुम्हारा इलाज़ नहीं कर पाया।
अगर मुझ में ज़रा भी मर्दानगी होती तो मैंने तुम्हे बचपन में पिटते या गाली खाते हुए थोड़े ही देखा होता। अगर मुझ में ज़रा भी इंसानियत होती तो में उठ खडा होता उस हर हाथ के खिलाफ जिसने तुम्हे चोट पहुंचाने की कोशिश की थी। में लड़ता उस हर गाली के खिलाफ जो दोस्त-यार प्यार में एक दूसरे को देते हैं जिनमे एक दूसरे की  माँ – बहन चोद कर मर्दानगी को सहलाया और दुलारा जाता है। अगर मुझ में मर्दानगी होती तो में चुप ना रहता जब भी मनोरंजन के नाम पर तुम्हे सरे बाज़ार खडा कर के तुम्हारी चोली, तुम्हारे सीने , तुम्हारे जलते बदन  और  तुम्हारी जवानी के चर्चे कर के  तुम्हे बदनाम किया जाता था।
मेरे DNA  के अन्दर ये नामर्दी कूट कूट कर भरी है और मैं  इस वजह से बेहद शर्मिन्दा हूँ, यही कारण है कि  मैं औरतो को दबा- धमका कर अपने मर्द होने का खोखला दावा पेश करता हूँ . लेकिन मौक़ा मिलते ही कभी , मन ही मन तो कभी सच- मुच  उनका बलात्कार कर देता हूँ ताकि  वो अपनी हदें ना भूलें।
क्या करूँ , मजबूर हूँ। मेरे अन्दर का जानवर, मेरे बस मैं नहीं रहता। माँ दुर्गा के चित्र जो आधा भैंसा और आधा आदमी दिखाई पड़ता है न, दरअसल मैं वही हूँ। मैं उस अन्दर के भैंसे को छिपा कर रखता हूँ इस दुनिया से लेकिन कभी कभी वो मेरे अन्दर से बाहर निकल आता है। कभी कभी तो वो तीन साल की बच्ची देख कर भी हुंकारे भरने लगता है और जब तक अपनी भूख मिटा न ले, शांत नहीं होता। 3 साल या 30 साल, मुझे तो बस एक ही चीज़ नज़र आती है।
तुम्हे क्या लगता है , ये मुझे अच्छा लगता है? नहीं!
इसीलिए तो मैं मंदिरों के बाहर लम्बी लम्बी लाइन लगा कर अपने गुनाहों की क्षमा  माँगता हूँ , बार - बार आध्यात्म  की चादर ओढ़ कर अपने अन्दर के भैंसे को छुपाने की कोशिश करता हूँ।
मेरे सुधरने के तो कोई आसार नहीं है लेकिन तुम्हे क्या हो गया है। साडी के कई लपेटों में लिपटे -लिपटे, करवा-चौथ का खोखला व्रत रखते रखते, चूड़ी, बिछिया , सिन्दूर और बिंदी जैसे गुलामी प्रतीकों के नीचे दबे दबे, हम जैसे जानवरों के लिए खाना बनाते-  बनाते और उनकी हाँ मैं हाँ मिलाते , तुम भी भूल  गयी कि  तुम क्या हो?!
जब जब इंसान के अन्दर के जानवर ने  तुम पर ग़लत निगाह डाली है , वो सिर्फ तुम्हारी शक्ति से ही पराजित हुआ है।
याद करो,  उस आदमी के रूप में छिपे जानवर को मारने के लिए कोई भी आगे नहीं आ पाया था। सब पराजित हो चुके थे उस से लेकिन फिर तुमने  अकेले ही उस भैंसे का गला काट डाला। मेरा गला भी काट दो। मुझ को मुक्ति दे दो इस पाशविकता से, इस वहशीपने से। अब ये मेरे बर्दाश्त के बाहर है। बस , तुमसे ही उम्मीद है। तुम ही इस दुनिया को , इस समाज को फिर से भयमुक्त कर सकती हो। हम हारे हुए खड़े  हैं। अपने अपराध को छिपाने के लिए  इधर- उधर कौने ढूंढ रहे हैं , अपने नपुंसक क्रोध को इधर उधर उछाल रहे है लेकिन किसी से कुछ नहीं हो रहा। क्यों, क्योंकि हम उन्ही मैं से एक हैं  जिन्होंने उस रात एक अकेली लड़की का रेप किया था।
ऐसे ही कहीं , एक काली रात में कोई रेप थोड़े ही हो जाता है !




कितना सही है किराए की कोख का चलन

mother-and-child-1aकहते हैं मातृत्‍व, एक स्‍त्री के जीवन का सबसे खूबसूरत अहसास होता है। बच्‍चे की पहली किलकारी, नन्‍हें पैरों से लिए पहले कदम और उसकी तोतली जुबान से मां सुनना, एक स्‍त्री के लिए कभी न भूलने वाले पल होते हैं जिन्‍हें वह हमेशा अपने दिल में संजो कर रखती है। पर गर्भाशय में संक्रमण के कारण कुछ स्त्रियां इस अहसास के लिए तरसती रह जाती हैं। ऐसे में ‘सरोगेसी’ एक बेहतरीन चिकित्‍सा विकल्‍प है जिसमें वंध्‍य जोड़े किसी अज्ञात महिला या अन्य जानकारी की सहायता से संतान सुख की प्राप्ति कर सकते हैं। 

read ओनलैन कुंडली   


सरोगेसी का शाब्दिक अर्थ- सरोगेसी शब्‍द लैटिन शब्‍द ‘सबरोगेट’ से आया है जिसका अर्थ होता है किसी और को अपने काम के लिए नियुक्‍त करना।

सरोगेसी के प्रकार
सरोगेसी कई तरह की होती है जैसे:

ट्रेडिशनल सरोगेसी- इस पद्धति में संतान सुख के इच्‍छुक दंपत्ति में से पिता के शुक्राणुओं को एक स्‍वस्‍थ महिला के अंडाणु के साथ प्राकृतिक रूप से निषेचित किया जाता है। शुक्राणुओं को सरोगेट मदर के नेचुरल ओव्‍युलेशन के समय डाला जाता है। इसमें जेनेटिक संबंध सिर्फ पिता से होता है।

जेस्‍टेशनल- इस पद्धति में माता-पिता के अंडाणु व शुक्राणुओं का मेल परखनली विधि से करवा कर भ्रूण को सरोगेट मदर की बच्‍चेदानी में प्रत्‍यारोपित कर दिया जाता है। इसमें बच्‍चे का जेनेटिक संबंध मां और पिता दोनों से होता है। इस पद्धति में सरोगेट मदर को ओरल पिल्‍स खिलाकर अंडाणु विहीन चक्र में रखना पड़ता है जिससे बच्‍चा होने तक उसके अपने अंडाणु न बन सकें।

सरोगेसी से जुड़े विवाद 


आज सरोगेसी एक विवादास्‍पद मुद्दा है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें सरोगेट मदर ने बच्‍चा पैदा होने के बाद भावानात्‍मक लगाव के कारण बच्‍चे को उसके कानूनी मां-पिता को देने से इंकार कर दिया। बच्‍चा विकलांग पैदा हो जाए या फिर करार एक बच्‍चे का हो और जुड़वा बच्‍चे हो जाएं तब भी कई तरह के विवाद सामने आए हैं जिसमें जेनेटिक माता-पिता द्वारा बच्‍चे को अपनाने से इंकार भी शामिल है।

खैर विवाद चाहे कुछ भी हो पर यह एक निर्विवाद सत्‍य है कि सेरोगेसी न केवल निःसंतान दंपत्ति को बल्कि समलैंगिक लोगों को भी मां या पिता बनने का सुखद अहसास कराने में मदद करती है। पर साथ ही यह एक प्रश्‍न भी है कि दूसरे का बच्चा जनने वाली औरत यानि सरोगेट मदर का बच्‍चे के प्रति भावनात्‍मक प्रेम क्‍या कानूनी कागजों में दस्‍तखत करा के खत्‍म किया जा सकता है।

सेरोगेसी (किराए की कोख) के लिए बड़ी संख्या में निःसंतान दंपति भारत का रुख कर रहे हैं। हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है। सर्वेक्षण के मुताबिक व्यावसायिक सरोगेसी के लिए भारत को तरजीह दी जा रही है। इसके बाद थाइलैंड और अमेरिका का नाम आता है। दरअसल, भारत में किराए की कोख के जरिए अभिभावक बनने का सपना पूरा करना काफी सस्ता पड़ता है इसलिए उसे  वरीयता दी जा रही है। 



अंतरराष्ट्रीय सेरोगेसी एजेंसी सेरोगेसी ऑस्ट्रेलिया के हवाले से अखबार ‘द हेराल्ड सन’ ने कहा, इस साल अब तक भारत में ऑस्ट्रेलिया युगलों के लिए 200 बच्चों का जन्म सेरोगेसी के जरिए हुआ। जबकि 2011 में यह आंकड़ा 179, 2010 में 86 और 2009 में 46 था। सर्वेक्षण में ऑस्ट्रेलिया सरकार के आंकड़ों और 14 वैश्विक सरोगेसी संस्थाओं के आंकड़ों को शामिल किया गया है। भारत में किराए की कोख लेने का खर्च 77 हजार डॉलर करीब 42 लाख 87 हजार रुपयेवहीं अमेरिका में इसके लिए एक लाख 76 हजार डॉलर करीब 98 लाख रुपये) खर्च करने पड़ते हैं। सर्वेक्षण में 217 ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों को शामिल किया गया। इनमें 50 प्रतिशत लोगों ने सरोगेसी के लिए बैंक से ऋण लिया। 45 प्रतिशत ने अपने खर्च में कटौती की। कुछ ने अपने रिश्तेदारों से उधार लिया या अपनी संपत्ति बेच दी। सेरोगेसी संस्था के प्रमुख ने बताया कि बच्चे की चाहत में सेरोगेट मां की व्यवस्था करने के लिए बहुत लोग भारत का रुख करते हैं।

कितना जायज है यह सौदा

भारत में किराये की कोख के संबंध में कोई कानून नहीं होने के कारण किराये की कोख सबके लिये उपलब्ध है। विदेशी दम्पति भारत आते हैं और किराये की कोख के जरिये बच्चे प्राप्त करते हैं और विदेश चले जाते हैं। लेकिन अगर किराये पर कोख देने वाली महिला की प्रसव के दौरान मौत हो जाये या एक से अधिक बच्चे का जन्म हो तो क्या होगा। किराये पर कोख लेने वाले दम्पतियों की जरूरत क्या वाकई जायज है। इस बात पर भी आशंका है कि किराये की कोख से पैदाहोने वाले बच्चों का इस्तेमाल अंगों की खरीद-फरोख्त या देह व्यापार के लिये भी हो सकता है।

भारत में किराये की कोख के व्यापार के फलने-फूलने का एक बड़ा कारण भारत के एक बडे़ तबके का आर्थिक रूप से कमजोर होना भी है, साथ ही भारत में अपेक्षाकृत कम खर्चीली चिकित्सा सुविधायें भी विदेशियों के इस और खिंचाव का एक प्रमुख कारण है। दिल्ली सहित भारत के तमाम हिस्सों में ऐसे अस्पताल आसानी से मिल जाते हैं जहां किराये पर कोख देने वाली महिलाओं का इंतजाम कराया जाता है एवं किराये की कोख से बच्चे को जन्म दिया जाता है। 



वैसे तो सेरोगेसीकी परम्परा महाभारत जितनी पुरानी है। सरोगेसी का पहला मामला अमरीका में 1985 में सामने आया था। यूं तो 1970 के दशक से ही आइवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) तकनीक का प्रयोग कृत्रिम गर्भधारण के लिए किया जा रहा है। परंतु हाल के वर्षो में भारत में कृत्रिम गर्भधारण के बढ़ते मामलों और ‘सरोगेटेड मदर’ की अवधारणा के प्रचार बढ़ने से इस विषय पर कानूनविदों और समाजशास्त्रियों में बहस छिड़ गई है।

व्यापार का रूप ले चुके इस कथित उपकार ने नव धनाढ्यों के लिए भी एक अतिरिक्त विकल्प का काम किया है। अब अपने काम या आराम में व्यस्त धनी महिलायें सरोगेट मदर के जरिये अपने परिवार के लिए बच्चे हासिल कर सकती हैं। मां बनने के इस अतिरिक्त विकल्प ने फैशन और ग्लैमर की दुनिया में एक वरदान का काम किया हैं।

ऐसा देखा जाता है कि गर्भ के दौरान मां का बच्चे के साथ एक भावनात्मक रिश्ता जुड़ जाता हैं जो उम्रभर बना रहता है, मगर सरोगेसी के जरिये पैदा बच्चे के साथ ऐसा कोई रिश्ता जुड़ना मुश्किल होता है। ऐसे में बच्चे पर नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी पड़ सकते हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार भविष्य में इस व्यापार के और तेज होने तथा बच्चे की चाह में और अधिक संख्या में विदेशी दम्पतियों के भारत आने की संभावना है।


सरोगेसी विशेषज्ञ डा. इंदिरा हिंदुजा कहती हैं कि अब सेरोगेसी को लेकर लोगों की झिझक दूर हो रही है। अब लोग ज्यादा खुल रहे हैं। मगर सेरोगेसी का बढ़ता प्रचलन अनाथ बच्चों को गोद लेने की प्रवृति को हतोत्साहित करेगा और अनाथ बच्चों के भविष्य पर सवाल खड़ा करेगा !!!!!!!!



रेप शरीर का हुआ पर आत्मा हारी नहीं

sohelaआज जब खुद को आइने में देखती हूं तो सोचती हूं क्या मैं वही हूं जिसने कभी जीने की चाहत छोड़ दी थी और चाहती थी कि इस दुनिया से बहुत दूर कहीं दूर चली जाऊं जहां कोई भी मुझे न पहचानता हो. ऐसा कहना है ‘ईयर ऑफ द टाइगर’ नाम के उपन्यास की लेखक सोहेला अब्दुलाली का. आप ये पढ़ कर थोड़ा सोच में पड़ जाएंगे कि ये क्या लिखा है कभी मरने की चाहत रखने वाली आज एक किताब कैसे लिख सकती है. पर ये सच है कि कभी मरने के बारे में सोचने वाली लड़की आज एक सफल लेखिका के रूप में उभर कर सामने आई है.


आज हम आपको एक ऐसी ही लड़की की कहानी बताने जा रहे हैं जिसको पढ़ने के बाद आप ये सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि क्या सचमुच ऐसा हो सकता है ?

  

सोहेला अब्दुलाली जब मात्र 17 साल की थीं तब वो अपने परिवार के साथ मुंबई में रहती थीं. एक दिन जब वो अपने एक पुरुष दोस्त के साथ घर के पास की पहाड़ी पर घूमने गई थीं तब अचानक चार-पांच लोग आए और उन्हें पकड़ कर जबर्दस्ती एक जगह पर ले गए और वहां ले जाकर उन लोगों ने सोहेला के साथ कई घंटों तक रेप किया और उनके दोस्त को बुरे तरीके से पीटा भी. बाद में वो लोग उन लोगों को मार देना चाहते थे लेकिन आपस में बहस करने के बाद उन्हें जिंदा छोड़ दिया. लड़खड़ाते हुए जख्मी हालत में वो घर पहुंचीं, लेकिन उनका परिवार बहुत अच्छा था और उनके परिवार ने उन्हें संभाला.


सोहेला अब्दुलाली कहती हैं कि ऐसे तो मात्र 17 साल की उम्र में मैंने सब कुछ खो दिया था, लेकिन उस मुश्किल घड़ी में मैंने अपने परिवार का सच्चा प्यार पाया था. कई महीनों तक मैं खामोश रही उस घटना को लेकर. समाज में चुप्पी पसरी हुई थी भ्रम का माहौल था कि अचानक 3 साल बाद मैंने अपने नाम से एक लेख महिलाओं की पत्रिका मानुषी में लिखा. इस लेख ने मेरे परिवार में तो खलबली पैदा की ही थी, इसने समाज के नारीवादी आंदोलनों पर भी खासा असर डाला था. 


उन्होंने कहा कि आज फिर 32 साल बाद जब मैं एक सफल लेखिका बन गई हूं फिर भी दिल्ली के रेप केस ने मुझे अपने जख्म याद दिला दिए. उन्होंने कहा कि रेप केस का प्रतीक बनना बहुत अच्छी बात नहीं है लेकिन ये कोई शर्म की भी बात नहीं है. उन्होंने कहा कि आज उस घटना को बीते एक युग बीत गया लेकिन समाज की सोच आज भी वही है जो उस समय थी .

रेप एक बहुत डरावना अनुभव होता है जिसे कोई भी लड़की बयां नहीं कर सकती है. लेकिन भारतीय महिलाओं के मन में रेप को लेकर बहुत तरह की आशंकाएं हैं. सोहेला का मानना है कि ये इतना डरावना भी नहीं होता है.  ये डरावना इसलिए होता है कि आप पर हमला होता है, आप डर जाती हैं कि  कोई और आपके शरीर पर काबू करता है और आपके सबसे करीब जाकर आपको चोट पहुंचाता है. यह इसलिए डरावना नहीं होता है कि इसमें आपके सम्मान को चोट पहुंचती है, यह इसलिए भी डरावना नहीं होता है कि ऐसी घटनाओं से आपके पिता या भाई के सम्मान को ठेस पहुंचती है. सोहेला का मानना है कि ये अवधारणा गलत है क्योंकि आप जितना डरेंगी ये पुरूषवादी समाज आप को उतना ही डराएगा. औरतों को चाहिए कि वो इससे डरे नहीं बल्कि इसका मुकाबला करें.


सोहेला का कहना है कि हमारी जिम्मेदारी नई पीढ़ी की परवरिश कर रहे लोगों के अंदर ऐसी भावनाएं जगाना है कि अगर कोई पुरूष ऐसा करता है तो उसे सजा दी जाएगी और इसके साथ उन सभी को सजा दी जाएगी जिन्होंने ऐसा होने के बावजूद दोषियों को जाने दिया. ऐसा होने के बाद ही हमारी आज की पीढ़ी खास कर लड़कियां इस समाज पर विश्वास कर पाएंगी और साहस के साथ जी पाएंगी .

अंत में हम यही कहेंगे कि जिस तरह सोहेला ने अपने को हारने नहीं दिया उसी तरह उन लड़कियों को भी नहीं हारना चाहिए जो इस तरह की घटना की शिकार होती हैं.










अब मैं बोझ नहीं हूं

                           अब मैं बोझ नहीं हूं 

अब और नहीं जलेंगी कन्याएं: दहेज के लिए कानून

दहेज शब्द से आज हर वो इंसान परिचित है जो इस समाज का हिस्सा है खास कर जिस घर में लड़की है. आज जिस घर में लड़की पैदा हो जाती है उसके मां-बाप तो उसके जन्म के साथ ही दहेज के बारे में सोचने लगते हैं. यूं तो दहेज माता-पिता द्वारा दिया जाने वाला उपहार होता है लेकिन समाज ने आज इसे बहुत गलत ढंग से लेना शुरू कर दिया है.


दहेज क्या है ?

जो सम्पत्ति, विवाह के समय कन्या के परिवार की तरफ़ से उसे उपहार में दी जाती है उसे दहेज का नाम दिया जाता है किंतु समय के साथ इसके इस रूप में परिवर्तन होता गया और वर को प्रदान किया जाने वाला धन या उपहार दहेज कहा जाने लगा. दहेज को उर्दू में जहेज़ कहते हैं. यूरोप, भारत, अफ्रीका और दुनिया के अन्य भागों में दहेज प्रथा का लंबा इतिहास रहा है. भारत में इसे दहेज, हुँडा या वर दक्षिणा के नाम से भी जाना जाता है तथा वधू के परिवार द्वारा नक़द या वस्तुओं के रूप में यह वर के परिवार को वधू के साथ दिया जाता है. संभवत: इस प्रथा को उन समाजों में महत्व प्राप्त हुआ जहां छोटी उम्र में विवाह हो जाते थे .


प्राचीनकाल में दहेज को काफी अच्छा माना जाता था. उस समय के लोगों का मानना था कि हर चीज के पीछे एक उद्देश्य होता है और दहेज लेने के पीछे भी एक अच्छा खासा उद्देश्य था. उनका मानना था कि दहेज का उद्देश्य नवविवाहित पुरुष को गृहस्थी जमाने में मदद करना होता था, जो अन्य आर्थिक संसाधनों के अभाव में शायद वह स्वयं नहीं कर सकता था. कुछ समाजों में दहेज का एक अन्य उद्देश्य भी होता था कि पति की अकस्मात मृत्यु होने पर पत्नी को जीवन निर्वाह में इससे सहायता होगी. दहेज देने के पीछे एक अवधारणा यह भी थी कि पति विवाह के साथ आई ज़िम्मेदारी का निर्वाह ठीक तरह से कर सके.


वर्तमान युग में भी दहेज नवविवाहितों के जीवन-निर्वाह में मदद के उद्देश्य से ही दिया जाता है. लेकिन आज के समाज के लिए ये एक अभिशाप बन गया है. इसका दुष्परिणाम बहुत भंयकर हो रहा है और आज यह नारियों के लिए एक काल बन चुका है.


अब पायल को ही ले लीजिए. कुछ दिनों के बाद उसकी शादी थी. हर लड़की की तरह उसने भी शादी को ले कर बहुत सारे सपने देखे थे. फिर कुछ दिनों के बाद उसकी शादी भी हुई पर उसने जो सोचा था वो बिल्कुल भी नहीं हुआ. शादी के कुछ दिन के बाद से ही उसके ससुराल वालों ने उस पर एक फ्लैट के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया और फिर धीरे-धीरे उसके ससुरालवालों ने उसका सुख चैन सब कुछ छीन लिया.


लेकिन पायल ने हिम्मत नहीं हारी. उसने समय रहते अपनी आवाज उठाई और अपने हक के लिए भी लड़ाई लड़ने का फैसला किया. लेकिन उसे तब बहुत बड़ा झटका पहुंचा जब उसे अपनी इस लड़ाई में अपने पति का साथ नहीं मिला. लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी. उसने भारत के दहेज कानून के अंतर्गत अपने ससुराल वालों पर केस किया. इस केस में उसकी जीत हुई जिसके परिणामस्वरूप उसे अपने ससुराल से अलग रहने और हर महीने मुआवजा भी मिला. लेकिन फिर शायद पायल की जिंदगी पूरी तरह बदल गई और उसके पति को भी अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने अपने परिवार को छोड़ कर अपने पत्नी का साथ देना सही समझा. आज पायल एक खुशहाल जिंदगी जी रही है.

दहेज और भारत


ये तो थी पायल की कहानी लेकिन भारत में बहुत सारी महिलाएं हैं जो पायल की तरह हिम्मत वाली नहीं हैं या फिर जिन्हें अपने हक का ज्ञान नहीं है. भारत जैसे देश में आज जब हम महिलाओं और पुरुषों को बराबरी का हक दिलाने की बात करते हैं तो वहां सभी को अपने हक के लिए आवाज उठाने का अधिकार है साथ ही इस अधिकार को इस्तेमाल करने से पहले हमें इसके बारे में जानना भी चाहिए.


दहेज के केस


माना कि एक अनुमान के अनुसार सिर्फ साल 2008 में ही दहेज से जुड़े कुल 3876 केस आए थे जिनमें से अधिकतर मामले वधु की मृत्यु के पश्चात थे. इस साल कुल 2500 लड़कियों की जान दहेज की वजह से गई थी. लेकिन अगर पायल की तरह ही अन्य महिलाओं को भी दहेज निषेध कानून की समझ होती तो इस बढ़ते हुए आंकड़े को रोका जा सकता था. आइए जानें भारत में ऐसे कौन-कौन से कानून हैं जो दहेज से जुड़े हैं:


दहेज के लिए कानून


दहेज निषेध के लिए निम्नलिखित धाराओं को लागू किया जाता है.


1) धारा 406 – अगर कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को दहेज के लिए प्रताड़ित करता है तो उसको और उसके परिवार वालों को इस धारा के अंतर्गत 3 साल की सजा हो सकती है या फिर जुर्माना देना पड़ सकता है या फिर दोनों ही सजा हो सकती है .

2) धारा 304 B – इस धारा के अन्दर उस तरह का केस आता है जिसमें किसी महिला की मौत अगर दहेज के कारण होती है या फिर उसको जलाने की कोशिश की जाती है तो उसके पति और घर वालों को उम्र कैद की सजा होती है. इस धारा के अन्दर कोई जुर्माना नहीं आता है इसमें सीधे सजा होती है.

3) धारा 498 A- इस धारा के अन्दर उस तरह का केस आता है जिसमें  अगर कोई महिला दहेज की प्रताड़ना से तंग आकर जान देने की कोशिश करती है और अगर इसकी शिकायत वो पुलिस से कर देती है तो उसके पति और ससुरालवालों को उम्र भर की सजा हो सकती है.

इसके अलावा भारत में दहेज निरोधक कानून भी है जिसके अनुसार दहेज देना और लेना दोनों ही गैरकानूनी घोषित किया गया है लेकिन व्यावहारिक रूप से इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया. आज भी बिना किसी हिचक के वर-पक्ष दहेज की मांग करता है और ना मिल पाने पर नववधू को उनके कोप का शिकार होना पड़ता है.

1985 में दहेज निषेध नियमों को तैयार किया गया था. इन नियमों के अनुसार शादी के समय दिए गए उपहारों की एक हस्ताक्षरित सूची बनाकर रखा जाना चाहिए. इस सूची में प्रत्येक उपहार, उसका अनुमानित मूल्य, जिसने भी यह उपहार दिया है उसका नाम और संबंधित व्यक्ति से उसके रिश्ते का एक संक्षिप्त विवरण मौजूद होना चाहिए.


इसके अलावा एक अहम कानून है घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005 ( The Protection of Women from Domestic Violence Rules 2005). इस अधिनियम के अनुसार अगर घर में पुरुष के साथ रह रही महिला को पीटा जाता है, धमकी दी जाती है अथवा प्रताड़ित किया जाता है तो वह घरेलू हिंसा की शिकार है. ऐसी प्रताड़ित महिला घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005 के अंतर्गत और सहायता प्राप्‍त कर सकती है.

अगर समाज की हर महिला को इन कानूनों और प्रावधानों की समझ हो तो हो सकता है आने वाला भारत महिलाओं के लिए एक बेहतर स्थान बनकर उभरे जहां किसी भी नवविवाहिता को जलाया या मारा नहीं जाएगा.




यौन शिक्षा से ही बलात्कार की घटनाएं बढ़ रही हैं !!

sex educationदेश में इस समय महिलाओं की सुरक्षा के लिए सख्त कानून की मांग उठ रही है. क्या करना चाहिए क्या नहीं ताकि महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके इस पर बहस हो रही है. ऐसे में विभिन्न नेताओं और नौकरशाहों द्वारा कुछ ऐसे बयान आते है जिससे समाज एक वर्ग खासा नाराज हो जाता है. महिलाओं के खिलाफ बढ़ रहे अपराध के बीच मुंबई पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह ने कहा है कि स्कूलों में दी जाने वाली सेक्स एजुकेशन से समाज में महिलाओं के प्रति स्थिति और बिगड़ रही है. उन्होंने कहा कि जिन देशों में सिलेबस में सेक्स एजुकेशन शामिल है, वहां महिलाओं के प्रति अपराध ज्यादा हो रहे हैं.


महिलाओं की सुरक्षा को लेकर एक मराठी अखबार की ओर से आयोजित सेमिनार में सत्यपाल सिंह ने कहा कि छात्रों को सेक्‍स एजुकेशन से ज्यादा नैतिक शिक्षा देने की जरूरत है. वह आगे कहते हैं कि सेक्स एजुकेशन को लेकर हमें सोच-समझकर आगे बढ़ने की जरूरत है. सिंह ने अमरीका का उद्धारण दिया. उन्होंने कहा कि अमेरिका के सिलेब्स में सेक्स एजुकेशन शामिल है, पर स्टूडेंट्स को सिर्फ सेक्शुअल रिलेशन बनाना सिखाया जा रहा है. यह सेमिनार महिलाओं की सुरक्षा पर आयोजित की गई थी.


सिंह ने यह भी कहा कि ‘एक सर्वे के मुताबिक रेप की घटनाएं धूम्रपान से ज्यादा होती हैं. जिन देशों ने सेक्स एजुकेशन की शिक्षा दी जा रही है, वहां महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़े हैं. स्कूलों में बच्चों को नैतिक शिक्षा दिए जाने पर जोर देते हुए पुलिस कमिश्नर ने कहा कि सेक्शुअल ऑफेंस शारीरिक से ज्यादा एक मनोवैज्ञानिक क्रिया है. और यह लोगों की प्रदूषित मानसिकता की वजह से हो रहा है. सिंह ने सिनेमा और टेलिविजन सीरियलों को भी आड़े हाथ लिया. उनका मानना है कि टेलिविजन सीरियलों में आजकल शादी से पहले और विवाहेतर सेक्स खुलेआम दिखाए जा रहे हैं. इसके अलावा मोबाइल और इंटरनेट के जरिए भी आज की पीढ़ी सेक्स की ओर ज्यादा रूचि ले रही है.

मुंबई पुलिस कमिश्नर के इस बयान पर कुछ सामजिक कार्यकर्ताओं ने आपत्ति जताई है. वैसे बच्चों में सेक्स एजुकेशन दिए जाने को लेकर आज भी समाज कई हिस्सों में विरोध दर्ज कराए जाते है. एक तरफ सेक्स एजुकेशन के समर्थन करने वालों का मानना है कि सेक्स एजुकेशन का उद्देश्य किशोरों में एचआईवी एड्स के प्रति जागरुकता लाना है. वही दूसरी ओर इसके विरोध करने वालों का मानना है कि इस तरह की शिक्षा से बच्चों में सेक्स के प्रति जागरुकता कम और अपराध करने प्रवृति ज्यादा पैदा होगी.


बेबस लड़की के जख्मों को कौन सहलाए……..(Story of Rape Victim

आज पायल के लिए काफी बड़ा दिन था. क्योंकि आज उसका जन्मदिन था और ये जन्मदिन तो कुछ खास ही था. आज पायल 25 साल की हो गई थी. उसने एक दिन पहले ही सोच रखा था कि इस बार वो पहले अपने दोस्तों के साथ दिन में पार्टी करेगी और फिर रात में अपने परिवार के साथ.


RAPE VICTIMउस दिन जब वो सुबह जगी तो सबसे पहले उसकी मां ने उसके सर को चूम कर उसे आशीर्वाद दिया और कहा कि तुम जीयो हजारो साल, तुम को मेरी भी उम्र लग जाए. इस पर पायल ने कहा कि ऐसे क्यों बोलती हो मां तुम को मेरी उम्र लग जाए.


इस पर उसकी मां ने उसके गाल पर मारा और कहा  कि ऐसे नहीं बोलते हैं. तब तक उसके पापा और बहन भी उसके कमरे में आ चुके थे. दोनों ने उसे जन्मदिन की मुबारकबाद दी और तोहफे भी दिए. उसकी बहन ने उसे तोहफे में फोटोफ्रेम दिया और कहा कि दीदी इसमें अपनी और मेरी तस्वीर लगाना और फिर सब हंसने लगे.

उसके बाद पायल तैयार होकर अपने दोस्तों के साथ पार्टी मनाने चली गई. धीरे-धीरे शाम हो गई….शाम से फिर रात हो गई लेकिन पायल नहीं आई. इधर उसके मां, पापा, बहन सब परेशान हो रहे थे. रात भर इंतजार के बाद जब सुबह तक पायल का कोई पता नहीं चला तो उसके पापा ने सोचा कि पुलिस में खबर कर देनी चाहिए. पुलिस के पास जाने के लिए जैसे ही उसके पापा ने दरवाजा खोला तो सामने पायल खड़ी थी. उसकी हालत काफी खराब थी. उसके पापा उसे पकड़ कर अंदर लाए. उसे देख कर उसकी मां धम्म से नीचे बैठ गई. उन्हें लग गया कि पायल के साथ कुछ बुरा हुआ है.


इधर पायल लगातर रोए जा रही थी और कह रही थी पापा मुझे बचा लो. काफी देर बाद जब उसकी उसकी मां को होश आया वह उसके पास आई और उसे कमरे में ले गई.


पायल कुछ भी बोलने की हालत में नहीं थी और इधर उसकी बहन चुपचाप देख कर ये समझने की कोशिश कर रही थी कि ये सब क्या हो रहा है. और इधर पायल लागतार रोए जा रही थी. दो दिन ऐसे ही बीत गए. घर में ऐसी खामोशी थी मानो किसी ने सालों से कुछ बोला ही ना हो.


फिर ये बात धीरे-धीरे मीडिया में फैल गई और उसके बाद ये बात पूरे शहर में आग की तरह फैल गई कि पायल के साथ रेप हुआ है. बस इसके साथ ही उसके परिवार की बची हुई इज्जत भी लुट गई. हर कोई बाहर निकलने पर सवाल पूछ्ता और ताने मारता. लोग यही कहते कि उनकी बेटी ही बदचलन थी. ये ताने सुन-सुन कर उसके मां-बाप पूरी तरह से टूट चुके थे. पायल ने तो बाहर निकलना बिल्कुल छोड दिया था. वह हर वक्त रोती ही रहती थी.

उसके पापा ने सोचा कि ऐसे नहीं चलेगा. उन्होंने पायल से कहा कि वो उन लडकों का नाम बताए ताकि वह पुलिस में उनकी शिकायत दर्ज करा सकें. फिर उस रात जब सब सोने चले गये तब पायल ने सोचा कि अगर उसके पापा ऐसा करते हैं तो उनकी और बदनामी होगी. फिर पायल ने एक ऐसा निर्णय लिया जिसके बारे में उसके परिवार वालों ने कभी सोचा भी नहीं था.


अगले दिन जब उसकी मां उसको जगाने गई तब पायल हमेशा के लिए सो चुकी थी. उसकी मां ने उसको जगाने की बहुत कोशिश की लेकिन वो नहीं जगी. पायल इस क्रूर दुनिया से बहुत दूर जा चुकी थी. उसके मां-पिता जोर-जोर से चिल्ला कर रो रहे थे और बहन चुपचाप खड़ी हो कर उस फोटोफ्रेम को देख रही थी जिसे उसने अपनी बहन को तोहफे में दिया था उसके मन में यही चल रहा था कि………“ये आंखें सब को देखती हैं तुझे नहीं तो इसके होने का क्या फायदा. मेरी मुस्कुराहट में जब तू शामिल नहीं होती तो मेरी हंसी मुझे बेमानी और खोखली लगती है……….!!


उपरोक्त दास्तां हर उस पीड़ित लड़की कि हो सकती है जिसे बलात्कार का शिकार बनाया गया हो. अनकही दर्दभरी कहानियों के पीछे कितनी सिसकियां होती हैं इसे जानने की कोशिश ये समाज कभी नहीं करता. व्यवस्था तो पूरी तरह संवेदनहीन है ही और दोस्त, रिश्तेदार भी रेप पीड़िता के लिए उत्पीड़क ही साबित होते हैं. समाज की निर्दयता की शिकार बेबस लड़की के जख्मों को मरहम कैसे लगे यह सोचना हर उस व्यक्ति का कर्तव्य है जो स्त्री को उसे पूरे सम्मान से जीने देने की वकालत करता है. इस ब्लॉग की अगली कड़ियों में हम बलात्कार, इसके दुष्परिणाम, दोषियों की मानसिकता, अपराधी को सजा और पीड़ित को न्याय दिलवाने के उपायों पर चर्चा करेंगे.,




किराए की कोख का पनपता धंधा

            किराए की कोख का पनपता धंधा 


senogeretविज्ञान आज भगवान का रूप ले चुका है. पहले तो इसने सिर्फ मारने के साधन बनाए थे लेकिन अब उसने जन्म देने की कला भी सिखा दी है. विज्ञान ने हमारे जीवन शैली को एक नई ऊंचाई दी है और ये सही भी है क्योंकि प्रगति और विकास के माध्यम से स्थापित होने वाली जीवनशैली ही आधुनिकता कहलाती है. आज जो दंपत्ति संतान के सुख से विहीन हैं उनके लिए सरोगेसी की  सुविधा उपलब्ध है. सरोगेसी यानि वास्तविक मां की जगह एक दूसरी महिला बच्चे को जन्म देने के लिए अपनी कोख का इस्तेमाल करेगी. सरोगेसी को वह महिलाएं अपनाती हैं, जो बच्चे को जन्म देने में असमर्थ होती हैं. आज जहां सब बिकता है हमने मां और ममता को भी बेच दिया कितना आगे निकल गया है मानव? ममता जिस शब्द पर भगवान भी नतमस्तक हो जाते हैं आज बिकने लगी है. आज भारत जैसे गरीब और विकासशील देश में यह प्रकिया एक धंधे की भांति हो गयी है.


आखिर क्यों बिकती और खरीदी जाती है कोख

सरोगेसी की सबसे बड़ी वजह है गरीबी. गरीब  महिलाओं की पैसों की चाहत उन्हें इस काम के लिए राजी करवा देती है. जब पुरुष गरीबी की वजह से अपना खून और किडनी बेचने को तैयार हो जाता है ताकि  उनके घर में चूल्हा जल सके तो ठीक वैसे ही महिलाएं भी गरीबी के कारण अपनी कोख में दूसरे के बच्चे को पाल लेती हैं. बांझपन भी सरोगेसी की एक बड़ी वजह मानी जाती है. विश्व की तो बात ही नहीं है भारत में जितनी भी शादियां होती हैं उसमें से 10 % महिलाएं बांझपन से ग्रस्त होती हैं.

कौन बनती है सेरोगेट मदर

सेरोगेट मदर की खोज के लिए पहले डॉक्टर की सलाह ली जाती है. फिर विभिन्न अखबारों में और आजकल तो इंटरनेट पर भी सरोगेट मां की खोज की जा रही है. उसके बाद महिला की पूरी मेडिकल जांच की जाती है कि कहीं उसे कोई रोग तो नहीं सरोगेट मां की. उम्र अमूमन 18 साल से 35 साल के बीच होती है.

एक कोख की कीमत

सरोगेट मां का सारा खर्च वही लोग उठाते हैं जिन्हें बच्चा चाहिए खराए पर कोकि  भारत में जहां तीन के लिए  लाख तक खर्च होता है वहीं दूसरे देशों में कम से कम 35-40 लाख रुपए तक खर्च आता है. ज्यादा खर्च होने के कारण अब विदेश से भी लोग भारत की तरफ रुख करने लगे हैं और देखते ही देखते यह कारोबार पूरे हिंदुस्तान में फैल चुका है  खासकर दक्षिण भारत में.

सेरोगेसी भारत के कुछ खास स्थानों में सबसे ज्यादा फैला है जैसे उड़ीसा, भोपाल, केरल, तमिलनाडु, मुंबई आदि. एक चीज जो ध्यान देने योग्य है वह है सेरोगेसी ऐसे राज्यों में ज्यादा देखने को मिलती है जहां पर्यटक ज्यादा आते हैं यानि भारत विदेशियों के लिए एक ऐसी जगह बन चुका है जहां सेरोगेट मदर्स आसानी से मिल जाती हैं. और अब तो इसने पर्यटन का रूप ले लिया है. इच्छुक पैरेंट्स को टूर ऑपरेटर पूरा पैकेज ऑफर करते हैं.

भारत में सरोगेसी इसलिए भी आसान है क्योंकि यहां अधिक कानून नहीं हैं और जो हैं उनकी नजर में यह मान्यता प्राप्त है. इसके कुछ नियम निम्न हैं :


1. सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे पर जेनेटिक माता-पिता का हक होगा.

2. बच्चे के जन्म -पिता का ही नाम होना चाहिए मेंप्रमाण पत्र

3. सरोगेसी कांट्रेक्ट में सरोगेट मां के जीवन बीमा का उल्लेख निश्चित रूप से किया जाना चाहिए.

4. यदि सरोगेट बच्चे की डिलीवरी से पहले जेनेटिक माता-पिता की मृत्यु हो जाती है, उनके बीच तलाक हो जाता है या उनमें से कोई भी बच्चे को लेने से मना कर दे, तो बच्चे के लिए आर्थिक सहयोग की व्यवस्था की जाए.


क्या कोई कानून है जो सेरोगेट मां को भी ध्यान में रखे

क्या कोई कानून है जो सेरोगेट मां को भी ध्यान में रखे 



senogeret.2अब सवाल ये है कि नौ महीने तक पेट में रखने और जन्म देने वाली सरोगेट मदर का बच्चे के प्रति भावनात्मक प्रेम क्या कानूनी कागजों में दस्तखत कराने के बाद खत्म  किया जा सकता है? और क्या जन्म से पहले पता होता है कि बच्चा विकलांग होगा या जुड़वा?


सरोगेट मां तो सिर्फ अपने कोख में दूसरे के भ्रूण को पालती है. यह कुछ ऐसा होता है जैसे आपने सब्जी दूसरे के घर से  ली और पकाया अपने ऑवन में. अब सब्जी कैसी होगी आप कैसे जान सकते हैं. . बच्चा विकलांग है या जुड़वा है तो इसमें दोष तो जेनेटिक मां बाप का हुआ न. सेरोगेट मां का जो पैसों के लालच में आकर अपनी कोख उधार देती है. 


एक गरीब मां अपनी गरीबी में आकर नौ महीने समाज और परिवार के नजरों के तीखे तीर झेल कर एक बच्चे को जन्म देती है और अगर बच्चे में कुछ दोष होने पर लेने वाला मना कर दे तो ऐसे में उस गरीब मां पर क्या बीतेगी आखिर कैसे कोई अपनी ही औलाद को लेने से मना कर . सकता है और एक तो पहले वह उसका देखभाल कर नहीं सकते और अगर छोड़ देते हैं तो यह सरोगेट मां पर जुल्म होगा. आखिर क्या ममता की यही कीमत है. आज के युग में जहां सब बिकता है अब क्या ममता भी बिकेगी यह विषय भी  समाज का सबसे बडा सवाल है क्योंकि हमारा आने वाला कल इससे प्रभावित होने वाला है अगर समय रहते इस विषय पर कानून नहीं बना तो भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है.

बेबी फैक्ट्री या कोख का व्यापार


एक महिला की कोख को बेबी फॉर्म या बेबी फैक्ट्री या कोख का व्यापार जैसे शब्द दिए जा रहे हैं. सवाल ये है कि गरीबी की मजबूरी क्या इस हद तक आ जाती है कि एक महिला अपनी कोख बेचने के लिए मजबूर हो जाती है. यदि एक महिला किसी मजबूरी के कारण कोख को बेचने जैसा कदम उठाती है तो समाज उसे कोख का व्यापार जैसे शब्द दे देता है. सच तो ये है  कि यदि यह मान लिया जाए कि महिला ने अपनी कोख को कुछ पैसे के लिए बेचा है तो खरीदने वाला यह क्यों भूल जाता है कि उसने भी किसी महिला की कोख को खरीदा है. आखिरकार जिम्मेदार दोनों ही हैं फिर सिर्फ महिला के लिए कोख का व्यापार करने जैसे शब्द क्यों?

यह कैसा व्यापारिक रिश्ता है जिसमें जन्म देने वाली मां अपने बच्चे को अपना बच्चा नहीं कह सकती है. ना जन्म लेने वाला बच्चा अपनी जन्म देने वाली मां को मां कह सकता है. समाज पर भी हैरानी होती है कि वह हर चीज की कीमत लगा देता है और अब तो मां की कोख की भी कीमत लगा दी गई है.

यदि सेरोगेसी शब्द से भावनात्मक बातों को निकाल दिया जाए तो यह सच है कि यदि भारतीय महिलाओं को विदेशों में कोख के व्यापार के लिए जाना जाएगा तो वो दिन भी बहुत पास ही होगा जब भारतीय महिलाओं का अपहरण किया जाएगा वो भी कोख को किराये पर लेने के लिए या फिर जबरदस्ती भारतीय महिलाओं की कोख पर अपना हक जमा कर अपना बच्चा पैदा कराने के लिए.

खूबसूरत अहसास के बदले मिली मौत की सजा

  खूबसूरत अहसास के बदले मिली मौत की सजा 



-murder-of-love-कहते है प्यार इस दुनियां का ऐसा खूबसूरत अहसास है जिससे मानव क्या भगवान भी अछूते नहीं रहे हैं. लेकिन शायद यही अहसास दुनियांवालों के नजरों में सबसे बड़ा पाप है. तभी तो अब्दुल हाकिम को प्यार के बदले मिली मौत कि सजा. उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के अब्दुल हाकिम, जिन्होंने कुछ साल पहले प्रेम विवाह किया था, को कुछ दिन पहले किसी ने मौत के घाट उतार दिया. हाकिम की पत्नी का कहना है कि उनके पति की हत्या उनके मायके वालों ने की है क्योंकि वह उनके और हाकिम के प्रेम विवाह के खिलाफ थे. यहां सवाल यह उठता है कि क्या किसी से प्यार करना इतना बड़ा पाप है कि उसे मौत की सजा दी जाए? आखिर क्यों लोग प्यार को इतना बुरा मानते है?

 

प्यार तो हर रिश्ते के बीच होता है चाहे वो मां बाप हो या फिर भाई बहन, प्यार की जरूरत सभी को होती है लेकिन अगर कोई लड़का या लड़की किसी से प्रेम करते हैं और अपनी पसंद से उसके साथ शादी भी करना चाहते हैं तो इसमें क्यों किसी को बुराई नजर आती हैं? इस प्यार को पाप का नाम क्यों दिया जाता है? क्यों हमारा समाज इस प्यार को नहीं समझता?

 

वैसे तो 21वीं सदी में जी रहे लोग चांद पर घर बनाने कि सोच रहे हैं लेकिन हमारी सोच आज भी काफी पिछड़ी है और वो भी खासकर प्रेम के मामले में. कहने के लिए तो परिवार वाले अपनी संतान से जान से भी ज्यादा प्यार करते हैं लेकिन अगर वहीं बच्चा अगर किसी और से प्यार कर ले तो जान भी परिवार वाले ही ले लेते हैं.

आखिर क्यों लोग यह नहीं समझते कि हर किसी का हक है कि वह अपनी मर्जी से जिन्दगी जी सके. जीवन तो एक बार मिलता है फिर उसपर इतनी पाबंदियां क्यों? आज के समय में जिस तरह बलात्कार की घटनाएं अपने चरम पर हैं, उसी प्रकार ऑनर किलिंग यानी झूठी शान की खातिर हत्या के आंकड़ों में भी दिनोंदिन वृद्धि होती जा रही है. पिछले कुछ समय से हरियाणा और उत्तर प्रदेश में बड़ी निर्ममता के साथ प्रेमी जोड़ों को मौत के घाट उतारा जा रहा है या वे खुद परिजनों एवं  समाज के डर से मौत को गले लगा रहे हैं. यह सब हमारी सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न तो लगाता ही है  साथ ही यह संदेश भी देता है कि हम आज भी मध्ययुगीन समय में ही जी रहे हैं. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज  प्रत्येक क्षेत्र में जागरुकता आने के बावजूद ग्रामीण समाज, प्रेम के नाम पर काफी पीछड़ा हुआ है.

उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि प्रेम को अक्षम्य अपराध घोषित कर वह जिस तरह लोगों को मार रहा है वह किसी ठोस नींव पर आधारित नहीं है. हरियाणा और उत्तर प्रदेश में  प्रेमियों की हत्याओं के जो मामले प्रकाश में आए हैं उनमें से अधिकांश मामलों में प्रेमियों के परिजनों का किसी न किसी रूप में हाथ रहा है. इन सभी घटनाओं में प्रेमी या प्रेमिका की हत्या करने के उपरांत परिजनों या गांववालों को किसी तरह की आत्मग्लानि का अनुभव भी होता हुआ दिखाई नहीं देता. इससे तो यही साबित होता है कि उनकी मानसीकता कितनी गिरी हुई है.

इस विषय को मात्र प्रशासन के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. जब तक समाज की सोच में कोई बदलाव नहीं आएगा तब तक प्रेमियों के लिए यह समाज इसी तरह के कत्लगाह तैयार करता रहेगा.


 

अरे, बच्चा ही तो है ….(?)

              अरे, बच्चा ही तो है ….(?) 


kidsबच्चों को समाज और देश का भविष्य समझा जाता है. उन्हें जिम्मेदार और परिपक्व बनाने में उनके अपने परिवार की भूमिका बेहद अहम होती है. बच्चे के मानसिक और चारित्रिक विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसे अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए एक स्वस्थ वातावरण मिले और साथ ही परिवार भी हर कदम पर उसकी सहायता करने के लिए तैयार रहे. संतान के जीवन में परिवार की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए ही बच्चे के लिए परिवार को ही आरंभिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है. 



आमतौर पर यह माना जाता है कि अगर अभिभावक बच्चे का सही और परिपक्व ढंग से पालन-पोषण करें तभी बच्चे के भविष्य को एक सकारात्मक मोड़ दिया जा सकता है, अन्यथा उन्हें सही मार्ग पर स्थिर रखना बहुत मुश्किल हो सकता है. इसीलिए आपने देखा होगा कि कई माता-पिता अपने बच्चों के साथ बहुत सख्त व्यवहार करते हैं. इसके पीछे उनका मानना है कि अगर बच्चों के साथ बहुत ज्यादा ढील बरती जाएगी तो वे एक आदर्श व्यक्तित्व ग्रहण नहीं कर पाएंगे.
एक समय पहले तक वैज्ञानिकों का भी कुछ ऐसा ही कहना था. अपने सर्वेक्षणों में वे पहले ही यह बात साबित कर चुके हैं कि अभिभावकों का बच्चों पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है. बच्चों की हर बात मान लेना या उन्हें हमेशा प्यार से समझाना सही नहीं है. कभी कभार बच्चों के साथ कठोरता बरतना भी बहुत जरूरी है.

लेकिन एक नए शोध में यह बात सामने आई है कि माता-पिता का सख्त व्यवहार बच्चों को कुंठित और तनावग्रस्त बना देता है. विशेषकर वे माताएं जो अपने बच्चों के साथ सख्त व्यवहार करती हैं और उन्हें हर बात पर टोकती हैं, उनके बच्चों में आत्मविश्वास कम होने लगता है और वे मानसिक रूप से भी परेशान होने लगते हैं.

एक ओर जहां चीनी लेखक एमी चुआ ने अपनी किताब में यह लिखा है कि एशियाई देशों में अभिभावको द्वारा बच्चे के साथ किया जाने वाला सख्त व्यवहार उन्हें काबिल और अच्छा प्रतियोगी बनाता है, माता-पिता जब बच्चे के ऊपर दबाव डालते हैं तो बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी अच्छा प्रदर्शन करते हैं. वहीं दूसरी तरफ मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डेसिरी क्वीन का कहना है कि वे बच्चे जो माता-पिता के दबाव में आकर उपलब्धियां पा लेते हैं, वे भले ही सफल हो जाएं लेकिन मानसिक तौर पर वे परेशान और कुंठित हो जाते हैं. अन्य छात्रों की तुलना में वे ज्यादा तनाव में रहते हैं.

डेसिरी क्वीन ने चीन और अमेरिका के प्रतिष्ठित स्कूलों के बच्चों को अपने इस शोध का केन्द्र बनाया जिसके बाद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि बच्चों पर अधिक सख्ती करना उन्हें मानसिक रूप से कमजोर बनाता है.

डेली न्यूज में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार क्वीन का कहना है कि एमी ने भले ही यह लिखा हो कि पश्चिम में बच्चे चीनी या एशियाई बच्चों से ज्यादा खुश हैं लेकिन वे बच्चे वास्तविक रूप से खुश नहीं रहते.

अगर इस शोध और उसकी स्थापनाओं को भारतीय परिवेश के अनुसार देखें तो अभिभावकों का बच्चों के साथ सख्ती या कठोरता करना उन्हें सही मार्ग पर अग्रसर रखने के लिए काफी हद तक सहायक होता है. लेकिन यह कितना और किस हद तक होना चाहिए इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए.

कई बार देखा जाता है कि अगर अभिभावक बच्चों को हर बात पर डांटते या उन पर दबाव बनाते हैं तो उनके बच्चे परेशान रहने लगते हैं और वे अवसाद ग्रसित हो जाते हैं. वहीं अगर माता-पिता सख्ती ना बरतें तो बच्चों को सही मार्ग पर चलाना दूभर हो जाता है. अभिभावकों की अनदेखी बच्चों के चारित्रिक विकास को बाधित करती हैं. वे अपनी पढ़ाई को तो नजर अंदाज करने ही लगते हैं इसके अलावा नैतिक और सामाजिक मूल्यों से दूर हो जाते हैं.

प्राय: देखा जाता है कि जिन बच्चों की गलतियां परिवार और समाज हमेशा माफ करता हैं, वे कभी भी सही और गलत में अंतर नहीं कर पाते. वह बहुत ज्यादा जिद्दी हो जाते हैं. उन्हें अपने हितों और इच्छाओं के आगे कुछ भी नजर नहीं आता. सहनुभूति या सहयोग जैसे शब्द उनके लिए कुछ खास महत्व नहीं रखते. समाज और परिवार की जरूरत और आपसी भावनाओं से उनका कोई सरोकार नहीं रहता. वह जानते हैं कि उनकी हर भूल माफ कर दी जाएगी इसीलिए उन्हें अपनी बड़ी से बड़ी गलती भी बहुत छोटी लगती है. वह कभी भी जिम्मेदार और परिपक्व व्यक्ति नहीं बन पाते.

इसीलिए जरूरी है कि कठोरता और प्रेम में सामंजस्य बैठा कर ही बच्चों के साथ व्यवहार किया जाए. दोनों की ही अति संतान और परिवार के भविष्य पर प्रश्नचिंह लगा सकती है.